👉जिस प्रकार संघ की मंत्रीपरिषद का प्रधान भारत का प्रधानमंत्री होता है, उसी प्रकार राज्य की मंत्रिपरिषद का प्रधान एक मुख्यमंत्री होता है. 1935 ई. के अधिनियम के अंतर्गत, मुख्यमंत्री को भी प्रधानमंत्री की संज्ञा दी गई थी. उस समय केंद्र में प्रधानमंत्री का पद नहीं था. संविधान के निर्माताओं ने संघ में प्रधानमंत्री के पद का प्रावधान करते हुए राज्यों में मुख्यमंत्री के पद का प्रावधान किया है. कार्य, अधिकार तथा शक्ति की दृष्टि से दोनों में साम्य है. संघ शासन में जो स्थान भारत के प्रधानमंत्री का है, राज्य के शासन में वही स्थान राज्य के मुख्यमंत्री का है. राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मुख्यमंत्री ही करता है, राज्यपाल तो सिर्फ एक सांविधानिक प्रधान है. मुख्यमंत्री का स्थान महत्त्वपूर्ण हैं
❤️मख्यमंत्री की नियुक्ति
👉सविधान के अनुसार मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है. परन्तु, व्यवहार में राज्यपाल की वह शक्ति अत्यधिक सीमित है. चूँकि राज्यों में उत्तरदायी अथवा संसदीय स्वरूप की कार्यपालिका की व्यवस्था की गई है, अतः विधानमंडल में जिस दल का बहुमत होता है, राज्यपाल उसी दल के नेता को मुख्यमंत्री का पदग्रहण और मंत्रिपरिषद के निर्माण के लिए आमंत्रित करता है. सामान्यतः, मुख्यमंत्री विधान सभा का सदस्य होता है, परन्तु इसके अपवाद भी हैं और विधान परिषद् के सदस्य भी मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त हुए हैं. यदि विधान सभा में किसी दल का स्पष्ट बहुमत न हो या किसी दल का सर्वमान्य नेता न हो, तो मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल को कुछ स्वतंत्रता हो सकती है.
❤️मख्यमंत्री की योग्यता, वेतन, कार्यकाल
👉सविधान में मंत्रियों के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है. केवल इतना ही कहा गया है कि प्रत्येक मंत्री को अनिवार्यतः राज्य के विधानमंडल का सदस्य होना चाहिए. यदि नियुक्ति के समय कोई मंत्री विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसे नियुक्ति की तिथि के छह महीनों के अंतर्गत किसी सदन का सदस्य बनना पड़ेगा, अन्यथा मंत्रिपद त्यागना होगा. व्यवहार में वही व्यक्ति मंत्री नियुक्त होता है, जो अपने दल में प्रभावी व्यक्ति होता और मुख्यमंत्री का विश्वासपात्र होता है. मंत्रियों को राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के अनुसार वेतन, भत्ते आदि मिलते हैं. संविधान में मंत्रियों की अवकाश-आयु, शिक्षा-सम्बन्धी योग्यता तथा कार्यकाल निश्चित नहीं किये गए हैं. सामान्यतः मंत्रियों का कार्यकाल 5 वर्ष है, जो विधान सभा की अवधि है. संविधान में कहा गया है कि मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद पर रहेंगे. परन्तु, मंत्रियों को पदच्युत करने में राज्यपाल की स्वतंत्रता बहुत सीमित है. चूँकि मंत्री विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं, इसलिए जब तक उन्हें विधान सभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त है और मुख्यमंत्री उन्हें चाहता है तब तक राज्यपाल उन्हें पदच्युत नहीं कर सकता. यदि राज्यपाल ऐसा करे, तो समस्त मंत्रिपरिषद त्यागपत्र देकर सांविधानिक संकट उपस्थित कर सकती है. हाँ, विधानमंडल मंत्रियों के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर उन्हें पदच्युत कर सकता है
👉मख्यमंत्री के कार्य
👉मख्यमंत्री का प्रथम कार्य मंत्रिपरिषद का निर्माण करना है. वह मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या निश्चित करता है और उसके लिए नामों की एक सूची तैयार करता है
👉वह मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या निश्चित करता है और उसके लिए नामों की एक सूची तैयार करता है. इस कार्य में वह प्रायः स्वतंत्र है; परन्तु व्यवहार में उसके ऊपर भी प्रतिबंध लगे रहते हैं. उसे अपने दल के प्रभावशाली व्यक्तियों, राज्य के विभिन्न भागों तथा सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों को मंत्रिपरिषद में सम्मिलित करना पड़ता है
👉इसके अतिरिक्त, उसे अपने दल की कार्यकारिणी समिति का भी परामर्श लेना पड़ता है. उस दल के कुछ वयोवृद्ध अनुभवी व्यक्तियों तथा नवयुवकों को भी मंत्रिपरिषद में सम्मिलित करना पड़ता है
👉मख्यमंत्री राज्यपाल की औपचारिक स्वीकृत से मंत्रियों के बीच विभागों का वितरण करना है. इस कार्य में उसे बहुत कुछ स्वतंत्रता रहती है; परन्तु उसे अपने सहयोगियों की इच्छा का आदर करना ही पड़ता है.
👉मख्यमंत्री मंत्रियों से पारस्परिक सहयोगपूर्वक कार्य करता है, उनके मतभेद और विवाद का निर्णय करता है. उसे सभी विभागों के कार्यों की निगरानी और सामंजस्य का व्यापक अधिकार प्राप्त रहता है. वह विधान सभा का नेता होता है. अतः, विधेयक को पारित कराने, धनराशि की स्वीकृति आदि में उसका व्यापक प्रभाव पड़ता है.
👉वह राज्यपाल को विधान सभा को विघटित करने का परामर्श दे सकता है.
👉वह विधान सभा का प्रमुख प्रवक्ता होता है. अतः, उसके आश्वासन प्रामाणिक