१८वीं शताब्दी में समाजमें अनेक कुप्रथाएँ व्याप्त थीं, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर समाप्त करने का प्रयत्न किया।
परम्परागत प्रथाओं का अन्त
सती प्रथा - पृष्ठभूमिब्रिटिश संरक्षण के पश्चात् राजस्थाम में सती प्रथा समाप्ती की ओर अग्रसर थी। १८१८ के बाद जयपुर राजघराने में, १८२५ के बाद बीकानेर राजघराने में एवं १८४३ के बाद जोधपुर घराने में कोई सती नहीं हुई थी। १८१३ ई० में अंग्रेजों ने एक आदेश जारी किया कि किसी भी विधवा को मादक वस्तुएँ खिलाकर अचेत कर देने या उसके इच्छा के विरुद्ध सती होने के लिए विवश करने पर दण्ड दिया जाएगा।सती प्रथा निषेध कानून १८२९ ई० - जब राजाराम मोहन राय ने अपनी विधवा भाभी को सति होते हुए देखा, तो उन्होंने इस अमानुषिक प्रथा के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। परिणामस्वरुप १८२९ ई० में गवर्नर जनरल विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और इसके विरुद्ध कड़ा कानून बना दिया।
सती प्रथा का अन्तजयपुर - (१८४५ ई०) इस समय जयपुर का शासक रामसिंह था, जिसकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। अत: शासन का संचालन कौंसिल आफ रीजैन्सी के हाथों में था, जिसका अध्यक्ष मे जान लडलो था। वह बड़ा सुधारवादी था।कर्नल ब्रुक ने लिखा है, 'इतने समय में भारतवर्ष की किसी रियासत में इतने उत्तम सुधार नहीं हुए, जितने जयपुर में मे लडलो के समय में हुए थे।'ए० जी० जी० का खरीता प्राप्त होने के बाद लडलो ने अपनी कौंसिल के सहयोग से अगस्त, १८४५ ई० में जयपुर राज्य में घोषणा की कि राज्य की सीमाओं के भीतर सती होना या सति के लिए प्रेरणा देने वाले व्यक्ति को अपराधी माना जाएगा। इस दिशा में झलाय के ठाकुर भोपालसिंह ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
उदयपुर - उदयपुर माहाराणा रुढिवादी विचार के होने का कारण सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए तैयार नहीं थे। निरन्तर १६ वर्ष तक अंग्रेज सरकार महाराणा से पत्र व्यवहार जारी करती रही। अन्त में विवश होकर उन्होंने आदेश जारी करके अपने राज्य में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
जोधपुर - (१८६०) जोधपुर के शासक ने भी कई वर्षों तक ए० जी० जी० के खरीतों पर कोई ध्यान नहीं दिया। एक बार जोधपुर के शासक की उपस्थिती में एक स्री सती हो गयी। इसपर रेजीडेण्ट ने बड़े कठोर शब्दों में ए० जी० जी० की शिकायत की। ए० जी० जी० ने यह पत्र गवर्नर जर्नल को भेज दिया। महाराजा ने इसका जवाब देते हुए कहा कि संवत् १९०४ के बाद कोई महिला यहाँ पर सती नहीं हुई है। इसके बाद पुन: अंग्रेज सरकार तथा महाराजा के बीच पत्र व्यवहार हुआ। अन्त में जोधपुर के माहाराणा ने १८६० ई० में अपने राज्य में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
कोटा - (१८६२ ई०) १८६२ ई० में ए० जी० जी० ने पोलिटिकल एजेन्ट के माध्यम से कोटा के महाराज रामसिंह के एक पत्र के माध्यम से सती प्रथा बन्द करने का आदेश दिया, तब से सती प्रथा बन्द हो गई।अलवर के शासक ने १८३० ई० में डूंगरपूर, बांसवाड़ा एवं प्रतापगढ़ के शासकों ने १८४० ई० में सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित करते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। १८६२ ई० के बाद समस्त राजस्थान में इस प्रथा के विरुद्ध आदेश जारी हो गये थे। बीसवीं शताब्दी में सती होने की दो घटनाएँ घटित हुई हैं। उदाहरणस्वरुप कुछ वर्ष पूर्व सीकर में रुपकुंवर नामक राजपूत महिला सती हो गयी थी, जिसकी सर्वत्र निंदा की गई। आज सती प्रथा अतीत की बात बन चुकी है।
डाकिनी वध बंद करने के सरकारी प्रयत्न१८४० ई० में ब्रिटिश सरकार का ध्यान इस अन्धविश्वास की ओर गया। जब ए० जी० जी० ने पोलिटिकल ऐजेण्टों तथा रेजीडेण्टों के माध्यम से राजस्थान के नरेशों को इसको बन्द करने के लिए खरीते भेजे। १८५३ ई० में मेवाड़ भील कोर के एक सैनिक ने एक स्री को डाकन होने के संदेह में मार डाला। इस पर अजमेर के ए० जी० जी० ने इस प्रथा को समाप्त करने हेतु भारत सरकार से निवेदन किया। इसके प्रत्युत्तर में भारत सरकार ने ए० जी० जी० को लिखा कि वह राजस्थान के सभी शासकों को पत्र लिखकर इस प्रथा को गैर - कानूनी घोषित करने हेतु खरीता भेजे। इसके परिणामस्वरुप उदयपुर के माहाराणा ने १८५३ ई० में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। उन्होंने घोषणा की कि यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी स्री को डाकिनी होने के सन्देह में उसे मार या जला देगा, तो उसे अपराधी समझते हुए कठोर दण्ड दिया जाएगा। कोटा, जयपुर तथा अन्य राज्यों ने भी इस दिशा में उदयपुर का अनुसरण करते हुए कदम उठाया। कानून बन जाने से यह प्रथा लगभग बंद हो गयी, पर इस संदर्भ में व्याप्त धारणा जनमानस से अभी तक पूर्णत: गयी नहीं है।
कन्या वध को रोकने में अंग्रेजी अफसरों के प्रयत्नइस कुप्रथा का ओर भी अंग्रेज उच्च अधिकारियों का ध्यान आकर्षित हुआ। एक अंग्रेज अधिकारी ने जब सर्वेक्षण करवाया, तो उसे पता चला कि मालवा तथा राजपूताने में प्रतिवर्ष २० हजार कन्याओं को जन्म लेते समय ही मार दिया जाता है। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने कन्या - वध की प्रथा बंद करने का प्रयत्न किया था, परन्तु इससे उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई। १७९५ ई० में कम्पनी सरकार ने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार कन्या वध को कन्या हत्या के बराबर माना जाएगा और जो दण्ड हत्या के लिए दण्ड दिया जाएगा,वही दण्ड इसके लिए भी दिया जाएगा।राजस्थान में सबसे पहले कैप्टन हॉल ने मेड़वाड़ा के मेड़ लोगों की पंचायत में कन्या - वध बन्द करवा दिया था, परन्तु हाडौती के पोलिटीकल ऐजेन्ट लारेन्स एवं विर्जिंल्कसन ने १८३३ से १८३४ ई० के बीच कन्या - वध को रोकने के सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य किया था। सर्वप्रथम १८३४ ई० में कोटा राज्य ने कन्या वध को गैरकानूनी घोषित करते हुए इस प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसी वर्ष उदयपुर के महाराणा ने मीणा जाति के लिए कन्या - वध को गैर कानूनी घोषित कर दिया। जनवरी, १८३७ में बीकानेर नरेश रतनसिंह ने अपने गया तीर्थ यात्रा में जाने से पूर्व अपने सरदारों को यह कसम दिलावायी कि वे कन्या-वध न करेंगे। इसी समय कर्नल सदरलैण्ड तथा मे थोरसबी ने इस विषय पर राजपूत शासकों से बातचीत की, परन्तु कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। जोधपुर राज्यके शासक ने १८३९ ई० में कन्या - वध को रोकने के लिए कुछ नियम बनाये थे। जयपुर राज्य के शासक ने भी इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित करते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इससे प्रोत्साहित होकर जोधपुर व उदयपुर राज्य ने १८४४ ई० में इस प्रथा को घोषित कर दिया।
समाधि मृत्यु पर प्रतिबन्धइस समय कई साधु योग प्राणों का स्तंभन करके जीवित समाधि ले लेते थे। अर्थात् अपने आप को जीवित अवस्था में भूमि में गड़वा देते थे। ए० जी० जी० के आग्रह पर सभी राजपूत राजाओं ने अपने राज्यों में इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करते हुए बन्द करवा दिया।
त्याग प्रथा बन्दइस समय अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्टों ने चारण एवं भाट लोगों के त्याग को भी सीमित करने का प्रयत्न किया। जयपुर के पोलिटिकल एजेन्ट लडलो ने ठाकुरों तथा चारणों को समझाया और इस प्रथा के विरुद्ध लोकमत उत्पन्न किया। लडलो ने कोटा, जोधपुर एवं मेवाड़ के पोलिटिकल एजेन्टों को भी इस दिशा में प्रयास करने के लिए लिखा। १८४१ ई० में जोधपुर राज्य में त्याग की निम्न राशि निर्धारित की गयी -
मर्यादाचारण भाट ढोली १ १००० रु० वार्षिक आय वाले जागीदार के लिए२५ रु० ९ रु० ५ रु० २ भौमिया राजपूतों (छोटे जागीरदारों के लिए)१० रु० ५ रु० x ३ सामान्य राजपूतों के लिए५ रु० ४ रु० x
चारणों तथा भाटों का एक रियासत से दूसरी रियासत में विवाह पर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
दास प्रथा का अंत१९वीं शताब्दी के अंत में राजस्थान में स्रियों तथा कन्याओं का क्रय - विक्रय होता था। कई बार तो इस प्रकार के क्रय - विक्रय पर राज्य कर भी वसूल करते थे। शादी में दहेज में देने के लिए भी कन्याएँ खरीदी जाती थीं। दासी तथा रखैलों के रुप में रखने के लिए भी कन्याओं को खरीदते थे। कई वेश्याएँ अनैतिक व्यवसाय करवाने के लिए भी कन्याओं को खरीदती थीं। अकाल के समय माता - पिता अपने पुत्रों को भी बेच देते थे।दादू पंथी अपने पंथ की संख्या में वृद्धि करने हेतु लड़के खरीदते थे। दादू पंथी अविवाहित होते थे। अत: वे खरीदे हुए बच्चे को ही अपना शिष्य बनाते थे। आर्थिक दृष्टि से समृद्ध लोग नौकर की पूर्ति के लिए गरीब बच्चों को खरीद लेते थे।परन्तु १८४७ में जयपुर सरकार ने एक कानून बनाकर इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। जोधपुर सरकार ने इस प्रकार का कार्य करने वाले व्यक्तियों को अपराधी घोषित कर दिया और ऐसे व्यक्तियों को एक वर्ष की जेल एवं २०० रु० जुर्माना करने का प्रावधान किया गया। कोटा में १८६२ ई० तक यह प्रथा चलती रही। इसके बाद इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। १८६३ ई० में उदयपुर सरकार ने भी मानव व्यापार को गैर कानूनी घोषित करते हुए इस पर प्रतिबन्धलगा दिया। १९वीं शताब्दी के अन्त तक इस प्रकार के व्यापार लगभग समाप्त हो गया, परन्तु धौलपुर में इस प्रकार की घटनाएँ आज भी घट जाती हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त अध्ययन के पश्चात् अन्त में निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि १९वीं सदी में इन विभिन्न कानूनों द्वारा समाज में प्रचलित विभिन्न कुरीतियों का अन्त किया गया, जिसके कारण आधुनिक समाज का निर्माण सम्भव हो सका।