सुषिर वाद्य यंत्र



 सुषिर वाद्य यंत्रः- ऐसे वाद्य यंत्र जिन्हें फूँक देकर बजाया जाता हैं। सुषिर वाद्य यंत्र कहलाते हैं। 🔰



1. अलगोजाः- यह राज्य का राज्य वाद्य यंत्र हैं। वादक दो अलगोजे मुँह में रखकर बजाता हैं। इसमें चार छेदों वाली बांसुरी होती हैं। जयपुर का कलाकार रामनाथ चैधरी नाक से बजाता हैं 


2. षहनाईः- इसका आकार चिलम के समान होता हैं। यह षीषम या सागवान की लकड़ी से बनाया जाता हैं। तथा इसमें आठ छेद होते हैं। वाद्य के ऊपरी सिरे पर ताड़ वृक्ष क ेपते की तूंती बनाकर लगाई जाती हैं तथा इसमें फूँक देने पर मधुर ध्वनि निकलती हैं। इसे सुन्दरी भी कहा जाता हैं। इसका प्रसिद्ध कलाकार बिस्मिला खाँ हैं।


3. बाँसुरीः- इस पोली नली में स्वर के लिए सात छेद बनाए जाते हैं। जो स्वरों की षुद्धता के लिए निष्चित दुरी पर बने होते हैं। इसका प्रसिद्ध कलाकार हरिप्रसाद चैरसिया हैं। यह भगवान कृष्ण का प्रिय वाद्य यंत्र हैं।


4. पुंगीः- यह छोटी लौकी के तुम्बे को बनी होती हैं। तुम्बे के निचले हिस्से में छेदकर दो नलियाँ लगाई जाती हैं जिनमें स्वरों के छेद होते हैं। इसको सबसे ज्यादा कालबेलिया जाति के लोग बजाते हैं। इसमें साँप् को मोहित करने की अद्भुत शक्ति होती हैं।


5. शंखः- यह एक जन्तु का कवच हैं जो समुद्र में पैदा होता हैं यह मंदिरों में प्रातःकाल एवं सांय काल आरती के समय बजाया जाता हैं।


6. बांकियाँः- यह पीतल का बना बिगुल की शक्ल का होता हैं। इसके एक ओर के छोटे मुँह में फूँक मारकर बजाया जाता हैं यह सरगड़ों का खानदानी वाद्य यंत्र हैं। इसके साथ ढोल एवं काँसी की थाली बजाई जाती हैं।


7. मषकः- यह बकरी के चमड़े की बनी होती हैं। इसमें एक मुँह से हवा भरते हैं तथा दूसरी ओर दो नलियाँ से हवा निकलती हैं। इसे भैरूजी के भोपे बजाते हैं।


8. भूँगल (रणभेरी)ः- यह पीतल की लम्बी नली की बनी होती हैं। यह युद्ध षुरू होने से पहले रण में बजाया जाता था। यह मेवाड़ के भवाइयों का प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। मेवाड़ में खेल शुरू होने से पहले लोगों को एकत्रित करने के लिए बजाया जाता हैं।


9. सींगीः- यह बलदार सिंग का बना होता हैं। तथा होठों पर रखकर कण्ठ से उत्पन्न ध्वनि से बजाया जाता हैं।


10. सताराः- इसमें दो बांसुरियाँ होती हैं जिन्हें एकसाथ फूँककर बजाया जाता हैं। यह जैसलमेर-बाड़मेर में गड़रिए, मेघवाल तथा मुस्लिम बजाते हैं।


11. नड़ःः- यह कगौर वृक्ष की 1 मीटर लम्बी प्राकृतिक लकड़ी से बनाया जाता हैं। इस पर सिंधी संस्कृति का पूर्ण प्रभाव हैं। इसका प्रसिद्ध कलाकार करणा भील हैं।


12. मोरचंगः- यह लोहे का बना वाद्य यंत्र हैं। इसे होठों के बीच रखकर बजाया जाता हैं। लंगा गायक सतारा या सारंगी की संगत में बजाते हैं।


13. नागफणीः- यह पीतल की सर्पाकार नली का होता हैं। जिसके पिछले हिस्से में एक छेद होता हैं।


14. करणाः- यह पीतल का 7 या 8 फुट लम्बा व नोकदार वाद्य हैं इसके संकड़े मुँह पर एक छेद होता हैं जिसमें सुरनाई जैसी नली होती हैं।


15. तुरहीः- यह पीतल की बनी होती हैं, जिसका एक मुँह छोटा, आकृृति नोकदार तथा दूसरा मुँह चैड़ा होता हैं।


16. मुरला/मुरलीः- यह पुंगी का परिष्कृत रूप् हैं जो नलीदार तुम्बे के नीचे चैड़े वाले भाग में दो बाँस की नलियाँ फँसाकर बनाया जाता हैं। एक नली से ध्वनि तथा दूसरी नली से स्वर निकलते हैं।


17. सुरनाईः- यह शहनाई के समान होता हैं। इसके मुख पर खजूर, ताड़ या कगोर वृक्ष का सरकंडा लगाया जाता हैं। इसे गीला कर बजाया जाता हैं। ढ़ोली, ढ़ाढी, लंगा तथा मांगणियार जाति द्वारा विवाह एवं मांगलिक अवसर पर बजाते हैं।


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